चेन्नई, 19 मार्च: मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा कि कोई भी मध्यस्थ (Arbitrator) किसी न्यायालय में लंबित मध्यस्थता (Arbitral) कार्यवाही में अनावश्यक रूप से पक्षकार नहीं बनाया जाना चाहिए।
किन मामलों में मध्यस्थ को पक्षकार बनाया जा सकता है?
मुख्य न्यायाधीश के.आर. श्रीराम और न्यायमूर्ति मोहम्मद शफीक की पीठ ने स्पष्ट किया कि मध्यस्थ को सिर्फ दो स्थितियों में ही पक्षकार बनाया जा सकता है:

- जब मध्यस्थ का कार्यकाल समाप्त करने की मांग की जाए (Section 14 of Arbitration and Conciliation Act, 1996)
- जब मध्यस्थ पर धोखाधड़ी (Fraud) या भ्रष्टाचार (Corruption) के आरोप हों (Section 34(2b)(ii)(i) of the Act)
मामले की पृष्ठभूमि
यह टिप्पणी हाईकोर्ट ने न्यायमूर्ति के.पी. शिवसुब्रमण्यम से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान दी।
- पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति शिवसुब्रमण्यम एक मध्यस्थ के रूप में कार्य कर रहे थे, लेकिन उन्हें अनावश्यक रूप से एक याचिका में पक्षकार बना दिया गया था।
- कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट (Arbitration) नियम, 2020 का हवाला देते हुए कहा कि यह नियम अनावश्यक रूप से मध्यस्थों को पक्षकार बनाने पर रोक लगाता है।
हाईकोर्ट का निर्देश
- न्यायालय की रजिस्ट्री (Registry) को यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दिया गया कि किसी भी मध्यस्थ को अनावश्यक रूप से पक्षकार न बनाया जाए।
- सिर्फ उन्हीं मामलों में मध्यस्थों को पक्षकार बनाया जाए, जो मद्रास हाईकोर्ट (Arbitration) नियम, 2020 के नियम 5(iv) के तहत आते हैं।
- इस आदेश की प्रति सभी जिला अदालतों में भेजी जाए ताकि वे भी इस नियम का पालन करें।
क्या कहता है कानून?
- धारा 14: यदि कोई मध्यस्थ अपने कार्य को करने में असमर्थ है या पक्षों की सहमति से हटता है, तो उसका कार्यकाल समाप्त हो जाता है।
- धारा 34(2b)(ii)(i): यदि मध्यस्थता का निर्णय धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रभावित है, तो उसे चुनौती दी जा सकती है।
निष्कर्ष
मद्रास हाईकोर्ट का यह फैसला मध्यस्थता की निष्पक्षता और स्वतंत्रता बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह उन मामलों को रोकने में मदद करेगा, जहां मध्यस्थों को अनावश्यक रूप से कानूनी विवादों में घसीटा जाता है।
