दुर्ग (छत्तीसगढ़)। प्रदेश का पारंपरिक त्योहार कमरछठ रविवार को मनाया गया। इस मौके पर माताओं ने अपने बच्चों की लंबी उम्र के लिए दिनभर उपवास रखा। शाम को लाई, पसहर, महुआ, दूध-दही आदि का भोग लगाकर सगरी की पूजा की गई। माेहल्लों और मंदिराें में मां हलषष्ठी की कथा पढ़ी और सुनी गई। शहर के लगभग सभी मोहल्लों में इस मौके पर सगरी पूजा का आयोजन किया गया था। पूजा करने सत्तीचौरा माँ दुर्गा मंदिर के सामने भी जुटीं महिलाओं ने कमरछठ के मौके पर सगरी बनाई। आसपास के इलाकों से सैकड़ों महिलाएं यहां जुटीं और हलषष्ठी की कथा की गई।
सत्तीचौरा माँ दुर्गा मंदिर के पुजारी पं. सुनील पांडेय, आचार्य विक्रांत दुबे,आचार्य आकाश दुबे ने बताया कि बच्चों की लंबी उम्र के लिए माताओं द्वारा किया जाने वाला छत्तीसगढ़ी संस्कृति यह ऐसा पर्व है जिसे हर जाति और वर्ग के लोग मनाते हैं। हलषष्ठी हलछठ, कमरछठ या खमरछठ नाम से भी जानी जाती है। रविवार को इस पर्व पर माताओं ने सुबह से महुआ पेड़ की डाली का दातून कर, स्नान कर व्रत धारण किया। दोपहर बाद घर के आंगन और मंदिरों में सगरी बनाई गई। इसमें पानी भरा गया। मान्यता है कि पानी जीवन का प्रतीक है। बेर, पलाश, गूलर आदि पेड़ों की टहनियों और काशी के फूलों से सगरी की सजावट की गई। इसके सामने गौरी-गणेश, मिट्टी से बनी हलषष्ठी माता की प्रतिमा और कलश की स्थापना कर पूजा की गई। साड़ी समेत सुहाग के दूसरी चीजें भी माता को समर्पित की गई। इसके बाद हलषष्ठी माता की 6 कथाएं पढ़ी और सुनाई गईं।
पसहर चावल और दूध की मांग बढ़ी
शनिवार को बाजार में पसहर चावल और दूध की मांग ज्यादा रही। दरअसल, इस दिन हल से जोता गया अनाज नहीं खाने का रिवाज है। ऐसी भी मान्यता है कि इस दिन महिलाएं खेत आदि जगहों पर नहीं जातीं। हरेली के दिन बनाई गई गेड़ी की भी सगरी के सामने रखकर पूजा की गई। पंडित जी ने बताया कि इस त्योहार को मनाने के पीछे की कहानी है कि जब कंस ने देवकी के 7 बच्चों को मार दिया तब देवकी ने हलषष्ठी माता का व्रत रखा और श्रीकृष्ण जन्मे। माना जाता है कि उसी वक्त से कमरछठ मनाने का चलन शुरू हुआ।