नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6A को सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी, असम समझौते को मान्यता

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने आज (17 अक्टूबर) नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जो असम समझौते को मान्यता देती है। यह निर्णय 4:1 के बहुमत से दिया गया। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्य कांत, एमएम सुंदरेश, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की पांच जजों की संविधान पीठ ने यह फैसला सुनाया।

हालांकि, जस्टिस पारदीवाला ने असहमति जताते हुए धारा 6A को भविष्य की दृष्टि से असंवैधानिक ठहराया। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि असम समझौता अवैध प्रवास की समस्या का राजनीतिक समाधान था और धारा 6A इसका कानूनी समाधान है। बहुमत ने माना कि संसद के पास इस प्रावधान को लागू करने की विधायी क्षमता थी। कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 6A मानवीय चिंताओं और स्थानीय जनसंख्या की सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने के लिए बनाई गई थी।

बहुमत ने यह भी कहा कि असम को अन्य राज्यों से अलग करना तर्कसंगत था क्योंकि बांग्लादेश के साथ सीमा साझा करने वाले अन्य राज्यों की तुलना में असम में प्रवासियों का प्रतिशत अधिक था। असम में 40 लाख प्रवासियों का प्रभाव पश्चिम बंगाल के 57 लाख प्रवासियों की तुलना में अधिक है क्योंकि असम का भूमि क्षेत्र पश्चिम बंगाल से कम है। इसके अलावा, 25 मार्च 1971 की कट-ऑफ तिथि भी तर्कसंगत थी क्योंकि उस दिन पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान में बांग्लादेश आंदोलन के खिलाफ ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया था।

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि राज्य में विभिन्न जातीय समूहों की उपस्थिति का मतलब यह नहीं है कि संविधान के अनुच्छेद 29(1) के तहत भाषाई और सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है। याचिकाकर्ताओं को यह साबित करना होगा कि एक जातीय समूह अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा करने में असमर्थ है, सिर्फ इसलिए कि वहां अन्य जातीय समूह मौजूद हैं।

जस्टिस सूर्य कांत ने (जस्टिस सुंदरेश और मनोज मिश्रा की ओर से) अपने फैसले में याचिकाकर्ताओं की उस दलील को खारिज कर दिया जिसमें धारा 6A को संविधान की प्रस्तावना में निहित भाईचारे के सिद्धांत का उल्लंघन बताया गया था। उन्होंने कहा कि भाईचारे की अवधारणा को संकीर्ण रूप से नहीं समझा जा सकता कि कोई व्यक्ति अपने पड़ोसी का चुनाव कर सके।

धारा 6A में दिए गए कट-ऑफ की तारीख को लेकर “स्पष्ट मनमानी” का आरोप भी न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया। न्यायालय ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता यह साबित नहीं कर पाए कि प्रवासियों के कारण असम की संस्कृति और भाषा पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।