जाति जनगणना पर मोदी सरकार का यू-टर्न! विपक्ष का दबाव या चुनावी दांव?

नई दिल्ली। जाति जनगणना को लेकर वर्षों से टालमटोल करती आई मोदी सरकार ने आखिरकार बड़ा फैसला लिया है। केंद्र ने ऐलान किया है कि आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जाति आधारित गणना भी की जाएगी। हालांकि सरकार इसे अपनी “नीतिगत दूरदर्शिता” बता रही है, लेकिन राजनीतिक गलियारों में इसे विपक्ष, ख़ासकर राहुल गांधी और INDIA गठबंधन की वैचारिक जीत के तौर पर देखा जा रहा है।

केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बुधवार, 30 अप्रैल को अचानक मीडिया को संबोधित करते हुए इस ऐतिहासिक फैसले की घोषणा की। उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति (CCPA) की बैठक में यह निर्णय लिया गया है।

लेकिन ऐलान की टाइमिंग पर सवाल उठ रहे हैं। ऐसे समय जब देश पहलगाम आतंकी हमले से आक्रोशित था और सत्तारूढ़ दल के समर्थक मीडिया घराने युद्ध जैसे माहौल को हवा दे रहे थे, जाति जनगणना की घोषणा को कई लोग “डाइवर्जन प्लान” भी मान रहे हैं।

कई विश्लेषकों का कहना है कि बिहार विधानसभा चुनाव से पहले पिछड़े वर्गों को साधने के लिए बीजेपी ने यह रणनीतिक चाल चली है। बिहार पहले ही जाति सर्वेक्षण कर चुका है और वहाँ अब बहस इस बात पर है कि आरक्षण की सीमा को 50% से बढ़ाकर 65% किया जाए।

क्या ये नीतीश पर बीजेपी का नया वार?

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जाति गणना का श्रेय बिहार में नीतीश-तेजस्वी की सरकार को जाता है और केंद्र का यह फैसला उनके प्रभाव को कमज़ोर करने का प्रयास हो सकता है।

विपक्ष ने ली बड़ी राजनीतिक बढ़त

राहुल गांधी ने इसे अपनी वैचारिक जीत बताते हुए कहा कि “मोदी सरकार को आखिरकार झुकना पड़ा। हम जाति जनगणना करवा कर रहेंगे।” कांग्रेस नेता ने इस फैसले को स्वागत योग्य बताया लेकिन साथ ही समयसीमा और पारदर्शिता की मांग की। राहुल ने तेलंगाना मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की बात भी उठाई।

समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, आरजेडी के तेजस्वी यादव और वामदलों ने भी इस फैसले का स्वागत किया, पर साथ ही चेताया कि इसे सिर्फ चुनावी हथकंडा न बनाया जाए।

केंद्र की नीति में ‘यू-टर्न’!

पिछले वर्षों में बीजेपी और संघ परिवार के कई नेता जाति जनगणना का विरोध करते आए हैं। कई नेताओं ने इसे “हिंदू समाज को बांटने की साजिश” कहा था। अब वही सरकार इसे ‘सशक्तिकरण का कदम’ बता रही है। इस बदलाव को लेकर विपक्ष हमलावर है और इसे बीजेपी की राजनीतिक मजबूरी बता रहा है।

अब बड़ा सवाल – कब होगी जनगणना?

2011 के बाद अगली जनगणना 2021 में होनी थी, लेकिन कोविड-19 के चलते इसे टाल दिया गया। अब जब इसमें जातिगत प्रश्न भी जोड़े जा रहे हैं, तो प्रक्रिया और भी लंबी हो सकती है। सरकार ने समयसीमा का स्पष्ट ऐलान नहीं किया है, जिससे विपक्ष और नागरिक समाज में चिंता बढ़ी है।

इतिहास क्या कहता है?

भारत में आखिरी बार सभी जातियों की जनगणना 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी। आज़ादी के बाद से केवल अनुसूचित जाति और जनजाति की गिनती होती रही है। 2011 में यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना कराई थी, लेकिन उसके आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए।

अब जब मोदी सरकार ने जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने का फैसला किया है, तो उम्मीद है कि इससे सामाजिक न्याय की बहस को नई दिशा मिलेगी — लेकिन ये भी साफ है कि यह फैसला जितना सामाजिक है, उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक भी।

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