प्रभात पटनायक द्वारा लिखित और लाल बहादुर सिंह द्वारा अनुवादित आलेख में विकास के दो अलग-अलग मॉडलों की चर्चा की गई है। इस आलेख में नवउदारवादी दौर और लोककल्याणकारी राज्य के दौर के बीच खाद्यान्न उत्पादन और उसके उपभोग के संदर्भ में गहरे विरोधाभासों को उजागर किया गया है।
नवउदारवादी दौर में जहाँ जीडीपी में वृद्धि तो हुई है, वहीं खाद्यान्न के उपभोग में गिरावट आई है। एक ओर जहाँ चावल का निर्यात 10.4 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण भारत में अधिकतम लोग प्रतिदिन 2200 कैलोरी से भी कम खाद्यान्न उपभोग कर रहे हैं। यह बढ़ती दरिद्रता और श्रमिक वर्ग की दयनीय स्थिति का प्रतीक है।

आलेख में यह तर्क किया गया है कि नवउदारवादी मॉडल केवल श्रमिकों की आय में कमी और बेरोजगारी के स्तर को बढ़ाता है, जबकि लोककल्याणकारी मॉडल में आय के समान वितरण और रोजगार सृजन को प्राथमिकता दी जाती है। इसमें खाद्यान्न की कमी और मुद्रास्फीति का दबाव देखने को मिलता था, लेकिन यह उस समय का तरीका था, जब सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत सरकार खाद्यान्न की आपूर्ति करती थी।
विकास का एक वैकल्पिक मॉडल यह हो सकता है कि हम प्रति व्यक्ति जीडीपी के बजाय आवश्यक वस्तुओं के उपभोग, खासकर खाद्यान्न के आधार पर विकास मापें। इसके लिए भूमि सुधार, सरकारी निवेश और खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि आवश्यक है। साथ ही, यह भी जरूरी है कि इस प्रक्रिया में कृषि-आधारित विकास को प्राथमिकता दी जाए, जो सरकारी संरक्षण में हो।
इस आलेख के माध्यम से प्रभात पटनायक ने नवउदारवादी नीतियों का विरोध करते हुए एक स्थिर और समानतापूर्ण विकास की दिशा में कदम बढ़ाने की जरूरत को स्पष्ट किया है।
