नई दिल्ली, 16 मई 2025:
भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने एक महत्वपूर्ण संवैधानिक कदम उठाते हुए अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है। यह कदम हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर सहमति देने की समयसीमा तय करने और ‘मानी गई स्वीकृति’ (Deemed Consent) की अवधारणा के संदर्भ में उठाया गया है।
यह पहली बार है जब राष्ट्रपति मुर्मू ने इस प्रावधान का प्रयोग किया है, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भी यह पहला अवसर है जब अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट की सलाह मांगी गई है।

यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को संविधान के किसी महत्वपूर्ण कानूनी या तथ्यात्मक प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट से राय लेने का अधिकार देता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट इस राय को देने के लिए बाध्य नहीं है और यदि वह इसे अनुचित, अस्पष्ट या पहले से तयशुदा मानता है, तो वह इसे अस्वीकार भी कर सकता है।
इतिहास में इससे पहले कई राष्ट्रपतियों ने अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय ली है। इनमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, वी.वी. गिरी, नीलम संजीव रेड्डी, ज्ञानी जैल सिंह, आर. वेंकटरमण, शंकर दयाल शर्मा, के.आर. नारायणन, एपीजे अब्दुल कलाम और प्रतिभा पाटिल शामिल हैं।
पिछले उदाहरणों में केरल शिक्षा विधेयक (1958), बेरूबारी विवाद (1961), राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया (1974), 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कावेरी जल विवाद (1991) और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद (1993) जैसे मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट से राय ली जा चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में यह भी स्पष्ट किया है कि अगर कोई संदर्भ केवल किसी पूर्व निर्णय की समीक्षा करने का अप्रत्यक्ष प्रयास हो, या अगर यह पूरी तरह राजनीतिक या सामाजिक हो, तो वह ऐसी राय देने से इनकार कर सकता है।
अब देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस संवैधानिक प्रश्न पर क्या रुख अपनाता है और क्या वह अपने पिछले निर्णय पर पुनर्विचार करने को तैयार है, या इस संदर्भ को अस्वीकार कर देता है।
