छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के छिंदवाड़ा गांव में धर्म, परंपरा और आस्था का टकराव एक गंभीर विवाद का कारण बन गया। मामला पादरी सुभाष बघेल के अंतिम संस्कार का है, जिनका निधन 7 जनवरी को हुआ था। उनके परिवार ने उन्हें गांव के कब्रिस्तान में दफनाने की इच्छा जताई, लेकिन गांववालों ने इसका विरोध किया। विवाद इतना बढ़ गया कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पादरी सुभाष बघेल को उनके गांव के कब्रिस्तान में नहीं, बल्कि 30-35 किलोमीटर दूर जगदलपुर के सार्वजनिक कब्रिस्तान में दफनाया जाएगा। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ द्वारा सुनाया गया, लेकिन दोनों न्यायाधीश इस मुद्दे पर सहमत नहीं थे।
रमेश बघेल, स्वर्गीय पादरी के बेटे, ने कहा, “मेरे पिता को उनके पूर्वजों की कब्र के पास दफनाने से रोका गया। इसी कब्रिस्तान में मेरे दादा और चाची की कब्र है। लेकिन गांववालों ने हमें रोक दिया और पुलिस ने भी उनका पक्ष लिया। यह मेरे अधिकारों का हनन है।”
गांववालों का कहना है कि यह कब्रिस्तान केवल समुदाय विशेष के लिए आरक्षित है। जबकि रमेश का परिवार, जो ईसाई धर्म का पालन करता है, इसे अन्याय मानता है।
इस मामले ने धार्मिक स्वतंत्रता, परंपरा और न्याय के बीच जटिल प्रश्न खड़े किए हैं। फिलहाल, सुभाष बघेल का शव तीन सप्ताह से फ्रीजर में रखा हुआ था और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अंतिम संस्कार किया गया।
इस प्रकरण ने न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान खींचा है। सवाल यह है कि क्या ऐसे मामलों में सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के बीच सामंजस्य बैठाने की आवश्यकता है?