अचनकमार टाइगर रिजर्व: ‘वन हमारा है’ कहने वाले बैगा आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ जंग

मुंगेली (छत्तीसगढ़):
अचनकमार टाइगर रिजर्व के आतरिया गांव में 55 वर्षीय प्रभु सिंह बैगा रोज़ सुबह अपने धान के खेत और जंगल की सीमा के बीच चलते हैं।
वो कहते हैं — “यह जंगल हमारे माता-पिता की तरह है, जो हमें खिलाता, ठीक करता और जीना सिखाता है।”

लेकिन अब प्रभु सिंह को सबसे बड़ा डर है — बिना चेतावनी के अपने ही घर से बेदखल होने का।


⚖️ वन विभाग से टकराव और अधिकारों की मांग

सालों से वन विभाग ग्रामीणों पर रिजर्व से बाहर जाने का दबाव बना रहा है। लेकिन आतरिया और 12 अन्य गांवों के बैगा परिवारों ने इसका विरोध किया है।
इनमें से 5 गांवों को 2022 में सामुदायिक वन अधिकार (Community Forest Rights) मिल चुके हैं, जबकि 3 अन्य गांवों ने आवेदन पूरा कर लिया है।

ग्राम सभाओं ने मिलकर कहा है कि वन अधिकार कानून (FRA) के तहत जंगल की रक्षा और प्रबंधन की जिम्मेदारी उनकी है, न कि वन विभाग की।
यह कानून 2006 में पारित हुआ था, जो जंगलों में रहने वाले समुदायों के पारंपरिक अधिकारों को मान्यता देता है।


🏛️ ग्राम सभाओं की ताकत और मंत्रालय की मान्यता

इस साल अगस्त में अचनकमार क्षेत्र की 19 ग्राम सभाओं के प्रतिनिधियों ने बम्हनी गांव में बड़ी बैठक की।
इससे पहले, जनजातीय कार्य मंत्रालय ने 24 जून को एक पत्र जारी कर कहा कि वन विभाग को ग्राम सभाओं के सामुदायिक प्रबंधन कार्यों में सहयोग करना चाहिए, बाधा नहीं डालनी चाहिए।

यह पत्र स्थानीय लोगों के लिए उम्मीद की किरण साबित हुआ।


🚫 जबरन विस्थापन का डर अब भी कायम

अचनकमार टाइगर रिजर्व को 2009 में घोषित किया गया था। उसी दिन 6 गांवों के 249 परिवारों को रातोंरात हटाया गया।
वन विभाग ने दावा किया था कि लोगों ने ‘सहमति’ दी थी, लेकिन ग्रामीणों के मुताबिक वह जबरन विस्थापन था।

प्रभु सिंह बैगा कहते हैं —
“हमारे पूर्वज यहीं जिए और मरे। अब हमसे कहा जा रहा है कि यह जंगल तुम्हारा नहीं। लेकिन यह जंगल हमारा जीवन है, हमारी पूजा, हमारी आत्मा।”


🗣️ ‘कानून की भाषा में जवाब देना सीखा’

दिलहरन टेकाम, बम्हनी ग्राम सभा के सदस्य बताते हैं,
“2009 में जब वन विभाग ने लोगों को हटाया, तब हमें अपने अधिकारों की जानकारी नहीं थी। लेकिन अब हम कानून की भाषा में बात करते हैं। उन्होंने सोचा बैगा सिर्फ ‘हां’ और ‘ना’ जानते हैं, पर अब हम संविधान की बात करते हैं।”

ग्राम सभाएं अब हर महीने बैठक करती हैं, ताकि रणनीति तय कर सकें और विभाग के दावों का कानूनी जवाब दे सकें।


📜 झूठी सहमति और विरोध की तैयारी

हाल ही में वन विभाग ने दावा किया कि चिरहट्टा, बिरारपानी और तिलाईदबरा गांवों ने पुनर्वास के लिए सहमति दी है।
लेकिन स्थानीय लोगों ने इसे “भ्रामक और झूठा” बताया।
ग्राम सभा के सदस्यों का कहना है कि हस्ताक्षर धोखे से लिए गए, बिना किसी बैठक के।

अचनकमार संघर्ष समिति अब इस मुद्दे को अदालत में ले जाने की तैयारी कर रही है।


🌍 ‘जंगल ही जीवन है’

तिलाईदबरा गांव की सुंदरी बाई (32) कहती हैं —
“हमसे कहा जाता है कि यहां रहना गैरकानूनी है, पर हम जाएंगे कहां? जंगल ही हमारा घर है। शहर के लोग कहते हैं कि ये जगह बाघों के लिए है, पर हमने कभी उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया।”


🧩 कानूनों का टकराव और अधूरी व्याख्या

पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. शरच्चंद्र लेले के अनुसार,
“वन अधिकार कानून ग्राम सभाओं की सहमति को अनिवार्य करता है, लेकिन वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 और उसके 2006 संशोधन को आधार बनाकर इन अधिकारों को कमजोर किया जाता है।”

उन्होंने कहा कि जब तक सामुदायिक अधिकारों का निपटारा नहीं होता, किसी भी विस्थापन को कानूनी नहीं माना जा सकता।


💔 ‘वापसी का अधिकार’ अभी भी अधूरा सपना

कर्नाटक के नागरहोल टाइगर रिजर्व में 40 साल पहले विस्थापित जनु कुरुबा जनजाति आज भी वापसी का इंतजार कर रही है।
भारत में हजारों विस्थापित परिवारों की यही कहानी है —
वे अपने जंगलों से दूर हैं, लेकिन यादों में अब भी वही घर बसता है।


🌱 निष्कर्ष

अचनकमार टाइगर रिजर्व का यह संघर्ष सिर्फ जमीन और जंगल की लड़ाई नहीं, बल्कि अस्तित्व, संस्कृति और आत्मसम्मान की रक्षा का प्रतीक है।
बैगा समुदाय आज भी कह रहा है — “जंगल हमारा है, हम ही इसकी रक्षा करेंगे।”

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