छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई किसी अखबार की बड़ी सुर्खी या सरकारी बयान की चका-चौंध में नहीं छुपी है, बल्कि आम जनता के रोज़मर्रा के अनुभवों और अस्पतालों की लंबी कतारों में साफ झलकती है. विभागीय मंत्री के वादे और दावे सुनने में तो अच्छे लगते हैं, लेकिन जमीन पर हालात जस के तस हैं — दवाएं मिलें न मिलें, डॉक्टर गायब, मशीनें बेकार पड़ी, और प्रशासनिक लापरवाही की एक लंबी फेहरिस्त.
फेल pregnancy kits, घटिया quality की दवाएं और जांच मशीनों के reagent की कमी ने ग्रामीण इलाकों की परेशानी बढ़ा दी है. प्राइमरी सेंटरों में नर्स तो दूर, डॉक्टर ही नहीं — 130 आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी बिना डॉक्टर के चल रही हैं. ICU में जहाँ हर बेड पर एक nurse चाहिए, वहाँ 20 बेड पर सिर्फ एक नर्स है.
घोटाला, हड़ताल और जवाबदेही का संकट
CGMSC में दवा खरीद घोटाले को लेकर ED की बड़ी छापेमारी हो चुकी है, जिसमें अधिकारियों की मिलीभगत से सैकड़ों करोड़ की हेराफेरी का मामला उजागर हुआ. घटिया गुणवत्ता वाली दवाओं के चलते कई बार अस्पताल में सप्लाई बंद करनी पड़ी है.

इधर, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के 16,000 संविदा कर्मचारी लंबे समय तक हड़ताल पर रहे — उनकी मांग थी नियमितीकरण, वेतन वृद्धि, और सुविधाएँ. हड़ताल से जहां मरीजों को परेशानी हुई, वहीं बातचीत और ठोस समझौते के बाद कुछ मांगे मानी गईं, लेकिन बाकी मुद्दों की जांच के लिए कमेटी बनेगी, जिसका रिपोर्ट अभी लंबित है.
सवाल: केंद्रमंत्री के वादों और जमीनी सच्चाई का फर्क
बयानबाज़ी, जांच कमिशन और अदालत के आदेश के बावजूद आम लोग खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं. मंत्री से लेकर अधिकारी, सब सुधार की बातें तो करते हैं लेकिन अस्पताल में अराजकता और भ्रष्टाचार का असर हर आम व्यक्ति को भुगतना पड़ता है. अगर यूं ही चलता रहा, तो विभागीय बयान बदलते रहेंगे, पर स्वास्थ्य सेवाओं का हाल वही रहेगा।
निष्कर्ष
छत्तीसगढ़ का स्वास्थ्य विभाग आज जनता की उम्मीदों, मानवता और अधिकार के इम्तहान पर खड़ा है. कहीं पैसों का घोटाला, कहीं दवाओं की किल्लत और कहीं मानव संसाधन का टोटा — वादे और वास्तविकता के बीच लोकतंत्र की जड़ों से जुड़े सवाल हैं. सुधार की शुरुआत ‘कमिशन’ के नहीं, आम जनता और कर्मचारियों के भरोसे से ही हो सकती है.
