नई दिल्ली। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शुक्रवार को आप्रवासन पर सख्ती करते हुए H-1B वीज़ा के लिए सालाना आवेदन शुल्क $100,000 (करीब 88 लाख रुपये) करने का ऐलान किया। अब तक यह शुल्क $2,000 से $5,000 के बीच होता था। ट्रंप का कहना है कि इस फैसले से केवल “वास्तव में अत्यधिक कुशल” लोग ही अमेरिका में आ पाएंगे और यह स्थानीय अमेरिकी कर्मचारियों की सुरक्षा करेगा।
भारत सरकार ने शनिवार को इस कदम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इस फैसले के मानवीय परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि इससे परिवारों में व्यवधान और करियर में अनिश्चितता आ सकती है। विदेश मंत्रालय ने कहा कि सरकार इसके निहितार्थों का अध्ययन कर रही है और उम्मीद है कि अमेरिकी प्रशासन इस पर गंभीरता से विचार करेगा।
विदेश मंत्रालय ने एक बयान में लिखा— “भारत और अमेरिका दोनों की साझेदारी नवाचार और रचनात्मकता पर आधारित है। दोनों पक्षों से आगे का रास्ता तय करने के लिए परामर्श की उम्मीद है।”
इस फैसले से सबसे ज्यादा असर भारतीय आईटी पेशेवरों और कंपनियों पर पड़ेगा। वर्तमान में 71% H-1B वीज़ा धारक भारतीय हैं। करीब 3 लाख भारतीय टेक कर्मी इस वीज़ा पर अमेरिका में काम कर रहे हैं। नासकॉम ने कहा कि अचानक की गई इस बढ़ोतरी से प्रोजेक्ट कंटीन्यूटी प्रभावित हो सकती है और भारतीय कंपनियों को समायोजन करने पड़ेंगे।
टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS), इंफोसिस और विप्रो जैसी आईटी कंपनियां बड़े पैमाने पर H-1B वीज़ा पर निर्भर हैं। नई फीस से इन कंपनियों को अरबों डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ सकता है, जिसका सीधा असर उनकी भर्ती और रणनीति पर पड़ेगा।
H-1B वीज़ा क्या है?
H-1B एक अस्थायी अमेरिकी कार्य वीज़ा है, जो कंपनियों को विदेशी विशेषज्ञों को नियुक्त करने की अनुमति देता है। यह तीन साल के लिए मान्य होता है और इसे छह साल तक बढ़ाया जा सकता है। हर साल अमेरिका 85,000 H-1B वीज़ा जारी करता है, जिनमें से तीन-चौथाई भारतीयों को मिलते हैं।
यह वीज़ा वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और कंप्यूटर प्रोग्रामरों जैसे उच्च कौशल वाले पेशेवरों के लिए अहम है। भारत और अमेरिका दोनों ही देशों की तकनीकी साझेदारी और आर्थिक विकास में इसकी बड़ी भूमिका है।
