रायपुर। न्याय में देरी को अक्सर अन्याय कहा जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में साबित कर दिया कि “न्याय भले देर से मिले, पर कभी नकारा नहीं जाता।”
मामला वर्ष 1986 का है, जब मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम के पूर्व बिलिंग सहायक जगेश्वर प्रसाद अवस्थी पर 100 रुपये की रिश्वत मांगने का आरोप लगा था। लोकायुक्त की टीम ने ट्रैप कार्रवाई की थी और उनके पास फिनॉल्थलीन पाउडर लगे नोट भी मिले थे। इसी आधार पर 2004 में निचली अदालत ने उन्हें एक साल की सजा सुनाई थी।
📌 हाईकोर्ट ने पलटा फैसला
लगभग चार दशक तक चली कानूनी जंग के बाद, न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु ने निचली अदालत का फैसला पलटते हुए अवस्थी को सभी आरोपों से बरी कर दिया। अदालत ने पाया कि—
- रिश्वत मांगने का कोई स्वतंत्र गवाह नहीं था।
- तथाकथित “शैडो विटनेस” ने स्वीकार किया कि उसने बातचीत न सुनी, न पैसे लेते देखा।
- सरकारी गवाह 20–25 गज दूर खड़े थे, जिससे घटना का प्रत्यक्ष अवलोकन संभव नहीं था।
- बरामद रकम पर भी भ्रम था—क्या एक 100 रुपये का नोट था या दो 50-50 रुपये के नोट।
📌 अधिकार न होने का तर्क माना गया सही
अवस्थी ने तर्क दिया कि घटना की तारीख पर उन्हें बिल पास करने का अधिकार ही नहीं था, यह अधिकार उन्हें एक माह बाद मिला। कोर्ट ने माना कि केवल रंगे हाथ पकड़े जाने से अपराध सिद्ध नहीं होता, जब तक “मांग और मंशा” साबित न हो।
📌 न्याय की जीत, भले 39 साल बाद
लगातार 39 वर्षों तक कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद अब अवस्थी पूरी तरह बरी हो चुके हैं। यह फैसला न केवल व्यक्तिगत राहत का प्रतीक है बल्कि लंबे मुकदमों से न्याय प्रणाली की खामियों और उसकी सहनशीलता दोनों को उजागर करता है।
