बीजापुर: कभी माओवादियों का गढ़ कहे जाने वाले गंगालूर में अब नई सुबह का उजाला फैल रहा है। यहां गोलियों की आवाजें थम चुकी हैं और उनकी जगह बच्चों की खिलखिलाहट गूंज रही है। बीजापुर जिले के कावड़गांव स्कूल में अब हर दिन बच्चे ककहरा पढ़ते हैं और गोंडी में उसका अर्थ समझते हुए हिंदी में दोहराते हैं।
कुछ समय पहले तक इस क्षेत्र में शिक्षा और संवाद की भाषा कहीं खो सी गई थी। 400 से ज्यादा गांवों में गोंडी, हल्बी, दोरली जैसी स्थानीय बोलियां ही संवाद का जरिया थीं। बाहरी दुनिया से बात करने के लिए लोगों को अनुवादक की मदद लेनी पड़ती थी। यही कमी माओवादियों ने भुनाई और किताब की जगह बच्चों के हाथों में बंदूक थमा दी।
लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। सुरक्षाबलों की कोशिशों और शिक्षा के विस्तार ने माहौल को नई दिशा दी है। आश्रम-शालाओं से लौटे बच्चे आज अपने गांव में शिक्षा दूत बन रहे हैं। गोंडी और हल्बी जैसी बोलियां उन्हें अपनी जड़ों से जोड़े रखती हैं, वहीं हिंदी सीखकर वे बाहरी दुनिया से संवाद की खिड़की खोल रहे हैं।
शिक्षाशास्त्री सुरेश ठाकुर का कहना है, “स्थानीय बोलियां समाज की आत्मा हैं, लेकिन हिंदी वह सेतु है जो हमें व्यापक दुनिया से जोड़ती है। शुरुआती शिक्षा में दोनों का संतुलन जरूरी है, तभी बच्चे मुख्यधारा से जुड़ पाएंगे।”
शिक्षक डॉ. गंगाराम कश्यप बताते हैं कि गोंडी, हल्बी, धुरवी, भतरी और दोरली जैसी बोलियों में अनुवादित किताबें बच्चों के लिए शिक्षा को सरल और रोचक बना रही हैं। यही वजह है कि अब बच्चे आत्मविश्वास से भरे नजर आते हैं और अपनी नई पीढ़ी को डर और हिंसा से आगे सपनों की उड़ान दिखा रहे हैं।
गंगालूर की यह नई तस्वीर बस्तर के लिए सिर्फ शिक्षा का परिवर्तन नहीं, बल्कि उम्मीद और बदलाव की मिसाल बन चुकी है।
