भद्राद्री कोठागुडेम: बस्तर के सुकमा जिले का रामपुरम गांव छोड़कर मदिवी हीरेश को आज पूरे 20 साल हो गए हैं। सलवा जुडूम और माओवादियों के बीच बढ़ते संघर्ष के बीच हीरेश को अपना गांव छोड़कर तेलंगाना के भद्राद्री कोठागुडेम जिले के येर्राबोरु गांव में बसना पड़ा। यहां उनका परिवार है और तीनों बच्चों का जन्म भी यहीं हुआ, लेकिन आज भी उन्हें यह जगह “घर” नहीं लगती।
हीरेश कहते हैं, “मेरे जैसे 27 परिवार यहां आकर बसे हैं। लेकिन हमें आदिवासी मान्यता नहीं मिली क्योंकि हमारे पास जाति प्रमाण पत्र नहीं है। ऐसे में हमें किसी भी तरह का आदिवासी लाभ नहीं मिलता।”
यह कहानी सिर्फ हीरेश की नहीं है, बल्कि बस्तर से हजारों विस्थापित परिवारों की है। दशकों से चल रहे संघर्ष ने इनकी पहचान और अधिकार दोनों छीन लिए। केंद्र सरकार ने मार्च 2026 तक नक्सलवाद उन्मूलन का लक्ष्य रखा है, लेकिन कार्यकर्ताओं को डर है कि इस प्रक्रिया में सबसे उपेक्षित वर्ग ये विस्थापित आदिवासी ही रह जाएंगे।
सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं, “हमें डर है कि जब यह संघर्ष खत्म हो जाएगा तो इन पीड़ितों को हमेशा के लिए भुला दिया जाएगा। जैसे 2019-20 में त्रिपुरा में फंसे ब्रू आदिवासियों को पुनर्वास मिला, वैसे ही गोंड आदिवासियों के लिए भी विशेष योजना बन सकती है।”
एनसीएसटी (राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग) के मुताबिक, छत्तीसगढ़ से करीब 13,000 लोग विस्थापित हुए हैं। इनमें से कई परिवार तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के जंगलों में बस गए हैं, लेकिन उन्हें जमीन के अधिकार नहीं मिले। प्रशासन का कहना है कि ये लोग “अवैध कब्जाधारी” हैं क्योंकि तेलंगाना में इन्हें अनुसूचित जनजाति की मान्यता नहीं है।
कटम कोसा, जो विस्थापित आदिवासी संगठन के अध्यक्ष हैं, बताते हैं, “मैंने 2005 में आठ एकड़ जमीन पर खेती शुरू की थी। कपास, मूंग और धान बोया। लेकिन 2023 में सरकार ने कहा कि सर्वे बाद में होगा और वन विभाग ने जमीन को अपना बताते हुए उसे छीनने की बात कही।”
विस्थापित आदिवासी अब तेलंगाना सरकार से जमीन के अधिकार और छत्तीसगढ़ सरकार से मुआवजे की मांग कर रहे हैं। सवाल यह है कि जिनके घर-खेत संघर्ष ने छीन लिए, क्या उन्हें नए जीवन का अधिकार मिलेगा या वे हमेशा बेघर और बेसहारा बने रहेंगे?
