नई दिल्ली, 22 जुलाई 2025: भारत के लोकतंत्र को दो बड़े मोर्चों से एक साथ चुनौती मिल रही है। एक ओर केंद्र सरकार के करीबी माने जाने वाले विचारक संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे मूलभूत शब्दों को हटाने की बहस को हवा दे रहे हैं, तो दूसरी ओर बिहार में 52 लाख से अधिक मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जाने ने चुनाव की पवित्रता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
🛑 संविधान की प्रस्तावना पर संघ की नई चाल?
लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी ने “400 पार” का नारा देकर संविधान में संशोधन की संभावनाओं को हवा दी थी। जनता ने उस मंसूबे को नकार दिया, लेकिन अब फिर ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की बहस को आपातकाल के बहाने तेज किया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट की केशवानंद भारती जजमेंट में स्पष्ट किया गया है कि संविधान की मूल भावना में लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय शामिल हैं। संविधान संशोधन तभी वैध माना जाएगा जब वह मूल भावना के अनुरूप हो। ऐसे में ये शब्द हटाने की मांग संविधान की आत्मा पर चोट है।
📉 बिहार में वोटर लिस्ट से 52 लाख नाम गायब!
इस बीच, बिहार में चुनाव आयोग द्वारा चलाए जा रहे Special Intensive Revision (SIR) के तहत अब तक 52 लाख वोटरों को वोटर लिस्ट से ‘मृत’, ‘डुप्लीकेट’, ‘स्थानांतरित’ या ‘अनट्रेसेबल’ घोषित कर बाहर कर दिया गया है।
🗣 RJD नेता तेजस्वी यादव ने आरोप लगाया कि यदि हर बूथ से मात्र 10 वोटर भी हटे तो यह 67 सीटों पर हार-जीत का अंतर बदल सकता है। 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच वोटों का अंतर 1 लाख से भी कम था—ऐसे में 52 लाख वोटर बाहर कर देना सीधे चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की साज़िश है।
चुनाव आयोग कह रहा है कि मतदाता 1 अगस्त से 1 सितंबर 2025 तक आपत्ति दर्ज कर सकते हैं, लेकिन विपक्ष इसे “Post-Facto Justification” बता रहा है, यानी पहले खेल कर लो, बाद में सफाई दे दो।
🔥 यह सिर्फ संशोधन या रिवीजन नहीं – यह लोकतंत्र की आत्मा पर हमला है
दोनों ही घटनाओं में लोकतंत्र के स्तंभों पर संगठित हमला नजर आता है—एक ओर संविधान की मूल आत्मा को मिटाने की कोशिश, दूसरी ओर जनमत के मालिकों को वोटर लिस्ट से बेदखल करने की रणनीति।
यह केवल शब्दों या आंकड़ों की लड़ाई नहीं—यह हमारी पहचान, हमारे अधिकार और हमारे संवैधानिक मूल्यों की लड़ाई है।
📌 निष्कर्ष:
संविधान और वोट दोनों पर हमला करके लोकतंत्र को पराजित करने की चालें चल रही हैं।
ऐसे में यह सवाल अब हर नागरिक के सामने खड़ा है —
“क्या आप भी चुप रहेंगे, या संविधान के पक्ष में आवाज़ उठाएंगे?”
