CAA, NRC और SIR प्रक्रिया: क्या भारत धर्म आधारित नागरिकता की ओर बढ़ रहा है?

नई दिल्ली, 10 जुलाई 2025:
भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए), राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और हाल ही में बिहार में चुनाव आयोग द्वारा शुरू की गई विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण (SIR) प्रक्रिया को लेकर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं। नागरिक अधिकार संगठनों और संविधान विशेषज्ञों ने इन नीतियों की तुलना नाज़ी जर्मनी की नस्लीय नीतियों से करते हुए इन्हें भारत के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ढांचे पर सीधा हमला बताया है।

संविधान की मूल भावना के खिलाफ़
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 नागरिकता की स्पष्ट परिभाषा देते हैं, जिनमें जन्म आधारित नागरिकता (jus soli) को प्राथमिकता दी गई थी। लेकिन 1986 और 2003 में हुए संशोधनों ने इस रुख को कमजोर किया। 2003 में बीजेपी सरकार ने ऐसा प्रावधान जोड़ा जिसमें कहा गया कि माता-पिता में से कोई एक भी अवैध प्रवासी नहीं होना चाहिए। यह संशोधन, अब के सीएए-एनआरसी नीति का आधार बन गया है।

SIR प्रक्रिया: बिहार में मतदाता अधिकारों पर संकट
बिहार में ECI द्वारा मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण कराए जाने की प्रक्रिया को कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने एनआरसी की तैयारी के पिछले दरवाजे से प्रवेश के रूप में देखा है। इस प्रक्रिया के तहत नागरिकों से दस्तावेज़ों की मांग की जा रही है, जिसमें माता-पिता की नागरिकता के प्रमाण भी शामिल हैं, जिससे करोड़ों गरीब, अशिक्षित और हाशिए पर पड़े लोगों के मताधिकार छिनने का खतरा पैदा हो गया है।

इतिहास की पुनरावृत्ति?
विशेषज्ञों का मानना है कि यह प्रक्रिया 1935 में नाज़ी जर्मनी द्वारा बनाए गए न्यूरेम्बर्ग कानूनों की याद दिलाती है, जिन्होंने यहूदियों की नागरिकता छीनने, उन्हें राजनीतिक भागीदारी से बाहर करने और अंततः नरसंहार का रास्ता प्रशस्त किया। भारत में भी, दस्तावेज़ों के अभाव में मुस्लिम, दलित, आदिवासी, ट्रांसजेंडर और अन्य वंचित तबकों को राज्यविहीन या द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनाने का खतरा पैदा हो रहा है।

RSS की प्रेरणा और फासीवादी मॉडल
इतिहासकारों के अनुसार, आरएसएस और हिंदू महासभा के कुछ नेताओं ने प्रारंभिक वर्षों में हिटलर और मुसोलिनी की फासीवादी विचारधारा से प्रेरणा ली थी। बी. एस. मुंजे और माधव सदाशिवराव गोलवलकर जैसे नेताओं ने खुलकर नाज़ी मॉडल की प्रशंसा की थी। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ‘We or Our Nationhood Defined’ में हिटलर की यहूदी नीति की सराहना की थी और भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की वकालत की थी।

सांप्रदायिक एजेंडा या लोकतांत्रिक गणराज्य?
इन सभी घटनाक्रमों को लेकर देशभर में चिंता जताई जा रही है कि यह प्रक्रिया भारत को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य से धार्मिक पहचान आधारित राष्ट्र में बदलने का प्रयास है। यह न केवल संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, बल्कि देश की सामाजिक एकता और लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी कमजोर करता है।

निष्कर्ष:
भारत के नागरिकों को सतर्क रहकर इन प्रयासों के खिलाफ खड़े होने की आवश्यकता है। हमें याद रखना होगा कि यह देश उन सभी का है जिन्होंने मिलकर स्वतंत्रता संग्राम लड़ा था, न कि किसी एक धार्मिक समूह का। आज समय है कि भारत की धर्मनिरपेक्षता, विविधता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए संवैधानिक मूल्यों के पक्ष में एकजुट हो जाया जाए।