महाराष्ट्र में सरकार गिरने के बाद राजनीतिक उथल-पुथल तेज़, हिंदी विवाद के बीच मराठी अस्मिता फिर चर्चा में

मुंबई, 30 जून 2025।
महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर भूचाल आ गया है। लगभग ढाई साल पहले बनी त्रिदलीय महायुति सरकार — जिसमें एकनाथ शिंदे गुट की शिवसेना, भाजपा और अजित पवार का राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) गुट शामिल था — अब विघटन की कगार पर पहुंच गई है। उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने अपने पद से इस्तीफा देते हुए सरकार से समर्थन वापस ले लिया, और कुछ ही घंटों में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने भी इस्तीफा दे दिया

अब जबकि महायुति सरकार अल्पमत में आ चुकी है, भाजपा के पास अगली सरकार बनाने का अवसर है। हालांकि राजनीतिक अनिश्चितता अभी भी बनी हुई है क्योंकि यह स्पष्ट नहीं है कि अजित पवार भविष्य में फिर किस पक्ष का समर्थन करेंगे। राज्य की राजनीति में विश्वास की कमी और आपसी संशय की स्थिति है।


हिंदी अनिवार्यता पर छिड़ा विवाद बना तात्कालिक कारण

सरकार गिरने का समय ऐसे दौर में आया जब केंद्रीय सरकार ने CBSE स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा घोषित किया। यह फैसला महाराष्ट्र में राजनीतिक विवाद का केंद्र बन गया। मुख्यमंत्री शिंदे और अजित पवार ने इस फैसले का बचाव किया, जबकि उद्धव ठाकरे (शिवसेना UBT प्रमुख) ने इसका कड़ा विरोध किया।

महाराष्ट्र में भाषा केवल सांस्कृतिक विषय नहीं, बल्कि यह एक राजनीतिक और संवैधानिक मुद्दा भी है। संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन (Samyukta Maharashtra Movement), जिसने मुंबई को मराठीभाषी राज्य की राजधानी बनाने की मांग की थी, उसी भाषा-संवेदना की उपज था। वर्ष 1960 में राज्य गठन के दौरान 106 आंदोलनकारियों की शहादत इस मुद्दे की गहराई को रेखांकित करती है।


भाषा विवाद कभी खत्म नहीं हुआ, बस दब गया था

मराठी बनाम हिंदी विवाद आज कोई नई बात नहीं है। यह मुद्दा वर्षों से हिंदुत्व, विकास और पहचान की राजनीति के पीछे छिपा रहा, लेकिन आम मराठी नागरिक के लिए भाषा आज भी एक मूल चिंता का विषय है। अब, जब बीजेपी सरकार हिंदी को अनिवार्य बना रही है और मुंबई की पहचान को रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स में समाहित कर रही है, तो यह मुद्दा फिर सतह पर आ गया है।


BMC चुनाव बन सकता है अगला संघर्ष का केंद्र

आगामी बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनाव में यह भाषा विवाद और मराठी अस्मिता का मुद्दा प्रमुख भूमिका निभा सकता है। जहां भाजपा और शिंदे सेना के साथ चुनाव लड़ने की अटकलें हैं, वहीं उद्धव ठाकरे की शिवसेना (UBT) अब मराठी वोट बैंक को एकजुट करने की कोशिश में लगी है।

हाल ही में एक VoteVibe सर्वेक्षण में पाया गया कि अधिकांश मराठी मतदाता अब भी उद्धव ठाकरे के समर्थन में हैं। यह न केवल पहचान की राजनीति है, बल्कि वर्गीय चेतना का पुनर्गठन भी है। 1990 से पहले मराठी वोटर विचारधारा और वर्ग के आधार पर बंटे हुए थे, लेकिन अब एक समेकित मराठी पहचान की राजनीति उभर रही है।


उद्धव की रणनीति: युवा, शिक्षा और नौकरी

उद्धव ठाकरे अब मराठी युवाओं से संवाद स्थापित कर रहे हैं — केवल संस्कृति के माध्यम से नहीं, बल्कि रोजगार और शिक्षा के मुद्दों पर भी। वे शिक्षा में मराठी भाषा को बढ़ावा देने, स्थानीय युवाओं की सरकारी नौकरियों में भर्ती और नीचले स्तर की नौकरियों में स्थानीय प्राथमिकता जैसे विषयों को जोर-शोर से उठा रहे हैं।

यह रणनीति शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की मूल विचारधारा की वापसी की तरह है, जिसमें मुंबई का मराठी मजदूर और निम्न मध्यवर्ग केंद्र में था। फर्क बस इतना है कि उद्धव अब मराठी समाज के वंचित जातियों तक भी पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं।


“महाराष्ट्र धर्म” की वापसी

उद्धव ठाकरे बार-बार कहते हैं कि जब तक मराठी मानुष को सम्मान, अवसर और सुरक्षा नहीं मिलेगा, तब तक महाराष्ट्र धर्म अधूरा रहेगा। इस नई राजनीतिक परिस्थिति में, भाषा एक बार फिर राजनीति का केंद्रबिंदु बन गई है — और आने वाले बीएमसी चुनाव इसका निर्णायक मोर्चा बन सकते हैं।


निष्कर्ष:

महाराष्ट्र की राजनीति में भाषा और पहचान की राजनीति फिर उभर रही है। त्रिदलीय सरकार का पतन और हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाए जाने का फैसला इस संघर्ष को और तेज़ कर सकता है। उद्धव ठाकरे के लिए यह अवसर है कि वे मराठी अस्मिता और सामाजिक न्याय की राजनीति को फिर से परिभाषित करें — वहीं भाजपा के लिए यह चुनौती है कि वह अपनी विकास और समावेशी पहचान को कैसे बचाए।