रायपुर, 24 जून 2025
छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में एक बार फिर से फर्जी मुठभेड़ का मामला सुर्खियों में है। 5 जून को इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में हुई एक कथित मुठभेड़ में शीर्ष माओवादी नेता सुधाकर के मारे जाने की खबर ने मीडिया के पहले पन्ने पर जगह पाई। इस मुठभेड़ को सुरक्षा बलों ने बड़ा ऑपरेशन करार दिया, लेकिन जब 10 जून को आधिकारिक रूप से जानकारी दी गई कि सुधाकर समेत कुल 7 माओवादी मारे गए, तो सच्चाई की परतें धीरे-धीरे खुलने लगीं।
इन सात मृतकों में शामिल थे 35 वर्षीय महेश कुडियम, जो कि मद्देड़ ब्लॉक के इरपागुट्टा गांव का निवासी था। पुलिस ने दावा किया कि महेश माओवादियों की नेशनल पार्क एरिया कमेटी का सदस्य था और उस पर 1 लाख रुपये का इनाम था। लेकिन गांववालों, मृतक की पत्नी और स्कूल प्रशासन के बयान कुछ और ही कहानी कहते हैं।
🔹 महेश कुडियम: माओवादी या स्कूल का रसोइया?
महेश कुडियम बीते 2023 से अपने गांव के स्कूल में मध्यान्ह भोजन रसोइया के तौर पर कार्यरत था। प्रधानाचार्य रमेश उप्पल ने इस बात की पुष्टि की है कि महेश एक नियमित और जिम्मेदार रसोइया था, जिसे 1200 रुपये प्रति माह मानदेय मिलता था। वह अप्रैल 2025 तक स्कूल आ रहा था, जिसके बाद गर्मी की छुट्टियों के चलते स्कूल बंद हो गया।
गांववालों और महेश की पत्नी सुमित्रा कुडियम ने बताया कि वह 4 जून को मवेशी चराने जंगल गया था, जिसके बाद वह घर नहीं लौटा। लोगों ने बताया कि सुरक्षाबलों ने उसे जीवित पकड़ा था, और बाद में उसे मुठभेड़ में मार गिराया गया।

🔹 ग्रामीणों की गवाही और वीडियो साक्ष्य
ग्रामीणों ने मीडिया को बताया कि महेश निहत्था था, जब उसे जंगल के पास सुरक्षाकर्मियों द्वारा पकड़ा गया। बाद में उसे माओवादी घोषित कर मार दिया गया। ग्रामीणों के अनुसार यह सुनियोजित हत्या थी और मुठभेड़ नकली थी। मीडिया रिपोर्ट्स और सोशल मीडिया वीडियो में भी यही बात सामने आई है।
🔹 प्रशासन की दोहरी बात और संदेहास्पद व्यवहार
बस्तर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पी. ने स्वीकार किया है कि महेश स्कूल का रसोइया था, लेकिन यह भी जोड़ा कि वह माओवादी गतिविधियों में संलग्न था। उन्होंने कहा कि उसकी सीपीआई (माओवादी) के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात और भूमिका की जांच चल रही है। सवाल उठता है कि यदि महेश माओवादी था, तो सरकारी स्कूल में डेढ़ साल से काम कैसे कर रहा था?
इसके अलावा, पुलिस ने 6 जून को शव बरामद किया था लेकिन 10 जून को मुठभेड़ की घोषणा की, जिससे उनकी कथनी और करनी पर सवाल उठते हैं। यह संदेह गहराता है कि क्या महेश को जानबूझकर एक ‘चारे’ की तरह इस्तेमाल किया गया, ताकि सुधाकर की हत्या को मुठभेड़ जैसा रूप दिया जा सके?
🔹 मजिस्ट्रियल जांच और भरोसे की कमी
सरकार ने मामले की मजिस्ट्रियल जांच की घोषणा तो कर दी है, लेकिन पूर्व के सैकड़ों फर्जी मुठभेड़ों की तरह इस बार भी दोषियों के बच निकलने की संभावना अधिक मानी जा रही है। बीते ढाई दशकों में बस्तर में आदिवासियों की ‘मुठभेड़ में मौत’ एक दुखद सामान्य बन चुकी है, जिनमें न्याय शायद ही कभी मिलता है।
🔹 आदिवासियों की दयनीय स्थिति
छत्तीसगढ़ में 1 लाख से अधिक मध्यान्ह भोजन रसोइये कार्यरत हैं, जो अंशकालिक मजदूर की श्रेणी में आते हैं। इन्हें ना तो सरकारी कर्मचारी माना जाता है, ना ही उन्हें न्यूनतम मजदूरी, पेंशन या सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिलता है। बस्तर जैसे संवेदनशील इलाकों में काम करने वाले इन श्रमिकों की हालत बेहद खराब है। महेश भी उन्हीं में से एक था—जो सरकारी बेरुखी और सुरक्षा बलों की घातक नीति का शिकार बन गया।
🔚 निष्कर्ष
महेश कुडियम की मौत ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा किया है कि क्या बस्तर के आदिवासी नागरिकों को मानवाधिकारों से पूरी तरह वंचित कर दिया गया है? क्या पुलिस और प्रशासन अपने अंक गणित सुधारने के लिए निर्दोष लोगों की जान लेकर फर्जी मुठभेड़ रचते हैं?
यह कहानी अकेले महेश की नहीं है, बल्कि उन सैकड़ों आदिवासियों की कहानी है जो बस्तर की गुमनाम धरती पर बिना गुनाह के मारे जा रहे हैं, और जिन्हें मरने के बाद आतंकवादी साबित कर दिया जाता है।
