बालोद जिले के बोहारा गांव में स्कूल मर्जिंग के खिलाफ अनिश्चितकालीन धरना, ग्रामीण बोले- “ये सिर्फ स्कूल नहीं, गांव की आत्मा है”

बालोद, छत्तीसगढ़ | 22 जून 2025 — छत्तीसगढ़ के बालोद जिले के गुरुर विकासखंड अंतर्गत ग्राम बोहारा में सरकार के एक फैसले ने ग्रामीणों को सड़क पर उतरने को मजबूर कर दिया है। 63 साल पुराने प्राथमिक शाला बोहारा को पास के ग्राम सनौद के स्कूल में मर्ज किए जाने के निर्णय के खिलाफ पूरे गांव ने एकजुट होकर मोर्चा खोल दिया है। गांव की महिलाएं, बुजुर्ग, युवा और बच्चे सभी हाथों में बैनर-पोस्टर लेकर स्कूल परिसर के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए हैं।


“स्कूल नहीं हटेगा, ये गांव की शिक्षा की पहचान है”

ग्रामीणों का कहना है कि यह स्कूल सिर्फ एक भवन नहीं, बल्कि गांव की भावनात्मक विरासत और शैक्षणिक आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। मर्जिंग के निर्णय से न सिर्फ बच्चों की पढ़ाई बाधित होगी, बल्कि गांव के शिक्षा केंद्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

ग्राम बोहारा के ग्राम प्रमुख ओमेश्वर साहू ने कहा,

“इस स्कूल की नींव हमारे पूर्वजों की जनभागीदारी से रखी गई थी। बच्चों को दूसरे गांव भेजना और फिर माध्यमिक शिक्षा के लिए वापस बुलाना न तो व्यावहारिक है और न ही सुरक्षित।”


“गरीबों के बच्चों से शिक्षा का हक छीना जा रहा है”

धरने में शामिल ग्रामीण महिला सातों बाई ने भावुक होते हुए कहा,

“अमीरों के बच्चे तो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं, लेकिन हमारे बच्चे इसी स्कूल में पढ़कर आगे बढ़ते हैं। अब सरकार हमारे बच्चों से उनका हक छीन रही है। जब तक स्कूल वापस नहीं मिलता, हम धरना खत्म नहीं करेंगे।”

गांव के वरिष्ठ नागरिक मिलन राम साहू ने कहा,

“हमने इस स्कूल को वर्षों अपने हाथों से सँवारा है। इसे मर्ज करना हमारे आत्मसम्मान पर चोट है। बारिश हो या धूप, हम अपनी अंतिम साँस तक स्कूल बचाने के लिए लड़ेंगे।”


प्रशासनिक टीम मौके पर, पर हल अब तक नहीं निकला

प्रशासन और पुलिस की टीम लगातार गांव पहुंचकर ग्रामीणों से संवाद कर रही है। हालांकि, अब तक कोई ठोस निर्णय या आश्वासन ग्रामीणों को नहीं दिया गया है। ग्रामीण अपने ‘स्कूल वापस दो’ की मांग पर अड़े हुए हैं और शांतिपूर्ण विरोध जारी है।


धरना बना जनआंदोलन, बच्चों से बुजुर्ग तक की भागीदारी

इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत गांव की एकजुटता और सामूहिक भागीदारी है। स्कूली बच्चे भी बैनर लेकर धरने में बैठे हैं। बुजुर्गों की आँखों में अपने अतीत की स्मृति और भविष्य की चिंता झलक रही है। यह धरना अब सिर्फ एक स्कूल बचाने की लड़ाई नहीं, बल्कि गांव के आत्मसम्मान और अधिकारों की लड़ाई बन चुका है।


सरकारी नीतियों पर उठे सवाल

इस घटना ने राज्य में जारी शिक्षक समानीकरण और विद्यालय मर्जिंग नीतियों पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। यह मामला एक उदाहरण बनकर सामने आया है कि प्रशासनिक निर्णयों में जमीनी संवेदनाओं की अनदेखी किस हद तक संकट खड़ा कर सकती है।