रायपुर, 19 जून 2025:
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में पुलिस हिरासत में हुई मौत के मामले में राज्य सरकार को मृतक सुरज हथठेल की मां को ₹2 लाख का मुआवजा देने का आदेश दिया है। यह फैसला न्यायमूर्ति मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्त गुरु की डिवीजन बेंच ने सुनाया, जिसमें मौलिक अधिकारों के हनन और न्याय प्रणाली की अवहेलना की कड़ी आलोचना की गई।
🛑 पुलिसिया बर्बरता और लापरवाही पर न्यायपालिका का करारा प्रहार
न्यायालय ने माना कि यह मामला मूलभूत अधिकार – जीवन के अधिकार (Right to Life) का सीधा उल्लंघन है, और राज्य इसके लिए उत्तरदायी है।
“ऐसे मामलों में मुआवजा केवल राहत नहीं बल्कि एक निवारक प्रभाव (deterrent effect) डालने वाला होना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचा जा सके,” कोर्ट ने कहा।
🔍 मां ने की थी स्वतंत्र जांच की मांग, उठाए कई सवाल
मृतक की मां द्वारा दाखिल रिट याचिका में CBI जांच, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, थाने के CCTV फुटेज और अन्य दस्तावेजों की मांग की गई थी।
उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य का आधिकारिक पक्ष विरोधाभासों से भरा हुआ है और घटनाक्रम में कई संदिग्ध पहलू हैं।
⚠️ “पावर कट” या सबूत मिटाने की कोशिश?
CCTV फुटेज केवल रात 2:47 बजे तक उपलब्ध है, इसके बाद का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला — उसी समय मृतक को थाने से बाहर ले जाया गया बताया गया।
राज्य ने इसे “पावर कट” बताया, लेकिन याचिकाकर्ता ने इस दावे को झूठा बताया, क्योंकि बिजली कटौती का कोई सबूत नहीं दिया गया।
🧾 पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में कई चोटों के निशान
मजिस्ट्रेट जांच में मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया, लेकिन पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में खरोंचें और चोटों के निशान दर्ज हैं, जिससे यह संदेह और गहरा गया कि सुरज की मौत हिरासत में प्रताड़ना का नतीजा हो सकती है।
📚 सुप्रीम कोर्ट के संदर्भों के साथ राज्य की जवाबदेही तय
हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की दलीलों को अविश्वसनीय और सच्चाई को छिपाने वाला प्रयास बताते हुए खारिज किया।
साहेली बनाम कमिश्नर ऑफ पुलिस (1989), नीलाबती बेहेरा बनाम उड़ीसा राज्य (1993), डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996), और अजब सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2000) जैसे सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि राज्य हिरासत में मौतों के लिए उत्तरदायी होता है।
💬 “मानवाधिकार सार्वभौमिक हैं”
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 2017 के फैसले (In Re: Inhuman Conditions in 1382 Prisons) को उद्धृत करते हुए कहा,
“मानवाधिकार किसी व्यक्ति की स्थिति पर निर्भर नहीं करते। जेल में बंद व्यक्ति भी अस्वाभाविक मृत्यु का शिकार हो सकता है, और उसे न्याय दिलाना राज्य का कर्तव्य है।”
🧑⚖️ अनुच्छेद 226 के तहत मुआवजा
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह मुआवजा निजी नुकसान की भरपाई नहीं, बल्कि सार्वजनिक कर्तव्य के उल्लंघन पर दंडात्मक क्षतिपूर्ति है, जो अनुच्छेद 226 के अंतर्गत दी जाती है।
💰 8 सप्ताह में भुगतान का आदेश, अन्यथा ब्याज लगेगा
कोर्ट ने निर्देश दिया कि राज्य सरकार मृतक की मां को 8 सप्ताह के भीतर ₹2,00,000 की राशि दे। यदि समयसीमा में भुगतान नहीं होता, तो इस पर 9% वार्षिक ब्याज लगेगा।
“हमने इस मामले में मृतक की समयपूर्व मृत्यु के कारण परिवार को हुए नुकसान, स्नेह और निर्भरता के आधार पर राज्य को जिम्मेदार ठहराया है,” अदालत ने कहा।
📌 निष्कर्ष
यह फैसला कानून के शासन, मानवाधिकारों की रक्षा और राज्य की जवाबदेही को दृढ़ता से स्थापित करता है। यह उन मामलों में नज़ीर बनेगा जहां कस्टोडियल डेथ को सामान्य दुर्घटना बताकर नजरअंदाज़ किया जाता रहा है।
