Bihar election real story: बिहार चुनाव नतीजों के बाद सत्ताधारी गठबंधन ने इसे “विकास की विजय” बताते हुए बड़े धूमधाम से पेश किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रामनाथ गोयनका स्मृति व्याख्यान में इस जीत को नेतृत्व और विकास मॉडल की स्वीकार्यता का सबूत बताया।
लेकिन सवाल यह है कि क्या यह जीत सिर्फ विकास की कहानी है, या इसके पीछे कुछ और भी छुपा है?
सांप्रदायिक संकेतों पर उठता बड़ा सवाल
Bihar election real story: पहला सवाल उस ट्वीट से पैदा हुआ, जिसने बिहार के लोगों को एक पुराने ज़ख्म की याद दिला दी। भाजपा की असम सरकार के मंत्री अशोक सिंघल ने फूल गोभी की खेती की एक तस्वीर साझा की—जो 1989 के भागलपुर दंगों के लोचाई गाँव की निर्दयी याद को ताज़ा कर गई।
उन्होंने कहा—“बिहार ने अनुमोदन किया!”
इस टिप्पणी ने साफ संकेत दिया कि बिहार चुनाव परिणामों को संगठित मुस्लिम-विरोधी ध्रुवीकरण का समर्थन बताया जा रहा है।
चुनाव अभियान के दौरान जिस तरह गिरिराज सिंह, योगी आदित्यनाथ जैसे नेता प्रचार में उतारे गए, और फिर खुद प्रधानमंत्री और अमित शाह ने सीमांचल में “घुसपैठियों के खतरे” का मुद्दा उठाया—वह एक गहरी तरफ़ इशारा करता है।
जातिगत राजनीति की परतें: सामाजिक न्याय बनाम सवर्ण केंद्रीकरण
दूसरा पहलू और भी गंभीर है—सामाजिक और जातिगत गठजोड़ की राजनीति।
भाजपा गठबंधन ने लालू-राबड़ी शासन को “जंगल राज” करार दिया। इस नैरेटिव का केंद्र यादवों का दानवीकरण था। प्रधानमंत्री ने तकरीरों में “कनपटी पर कट्टा” और “छह गोली सीने में” जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया।
लेकिन यह बयानबाज़ी वास्तव में किसे छुपा रही थी?
सत्ताधारी गठबंधन का वास्तविक सामाजिक आधार
- लगभग सभी सवर्ण जातियाँ एकजुट
- बड़ी संख्या में गैर-यादव पिछड़े, अति पिछड़े और दलित समुदाय BJP गठबंधन से जुड़े
- इसके सामने वंचित तबकों की संभावित एकता को कमजोर किया गया
राजनीतिक विश्लेषणों में अक्सर कहा गया कि NDA का सामाजिक गठबंधन व्यापक है, लेकिन यह तथ्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि यह सवर्ण-केंद्रित सामाजिक पुनर्संरचना थी।
क्या वास्तव में यह चुनाव बराबरी का मुकाबला था?
यहीं आता है सबसे महत्वपूर्ण सवाल—
क्या यह चुनाव वास्तव में लोकतांत्रिक और निष्पक्ष था?
2024 के आम चुनाव के बाद से विपक्ष लगातार कहता रहा है कि मुकाबले समान नहीं रह गए। बिहार चुनाव में तीन बड़े आरोप सामने आए—
1. SIR प्रक्रिया के जरिए वोटों की कथित टार्गेटेड कटौती
हजारों लोग वोट डालने पहुंचे लेकिन पता चला—
उनके नाम मतदाता सूची से गायब थे।
पिछली बार विपक्ष जिन सीटों पर बेहद कम अंतर से जीता था—
इस बार उन्हीं सीटों पर इतने ही वोट काटे गए, और इस बार सत्ता पक्ष जीत गया।
2. मतदाताओं के टार्गेटेड जोड़ने के आरोप
दिल्ली, यूपी, हरियाणा, मुंबई के BJP नेताओं के
दो जगह वोट डालने के वीडियो सामने आए।
एक क्षेत्र में तो UP के 5,000 बाहरी मतदाताओं के नाम शामिल पाए गए।
कई फोटो, पते और नाम भी गलत पाए गए।
3. चुनाव आयोग की भूमिका पर गहरे सवाल
- मतदान प्रतिशत बाद में बढ़ाया गया
- जितने वोट पड़े, उससे करीब 1.75 लाख ज्यादा वोट गिने गए
- 6 सीटों पर कैंसिल्ड डाक मतों से कम अंतर से नतीजे बदले
- 8 सीटों पर NDA उम्मीदवारों को संदेहजनक रूप से समान मात्रा में वोट मिले
इन तथ्यों ने विपक्ष को मजबूर किया कि वे कहें—
“क्या ऐसे चुनाव में हिस्सा लेना भी चाहिए?”
वोट शेयर बनाम सीट—क्यों बढ़ा संदेह?
- RJD — 23% वोट → सिर्फ 25 सीटें
- महागठबंधन — 38% वोट → सिर्फ 34 सीटें
- सत्ताधारी गठबंधन — 44% वोट → 202 सीटें!
यह अनुपात लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व पर गंभीर सवाल उठाता है।
आगे की राह: आनुपातिक प्रतिनिधित्व की जरूरत
विशेषज्ञों का मानना है कि
Proportional Representation System ही
टार्गेटेड वोट कटौती और परिणामों की हेरफेर का रास्ता रोक सकता है।
विपक्ष को—
- चुनाव आयोग की स्वतंत्रता
- SIR प्रक्रिया पर निगरानी
- और आनुपातिक प्रतिनिधित्व
को अपने एजेंडे में फौरन शामिल करना होगा।
Bihar election real story सिर्फ विकास के दावे की कहानी नहीं है।
यह एक ऐसे चुनाव की कहानी है, जिसमें
सांप्रदायिक संकेत, जातिगत पुनर्संरचना,
मतदाता सूची में कथित गड़बड़ी,
और लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता
सब सवालों के घेरे में हैं।
जीत तो मिल गई—
लेकिन क्या लोकतंत्र भी जीता?
यही सवाल बिहार की जनता और देश के सामने आज खड़ा है।
