बिहार, 1 नवंबर 2025:
बिहार की धूल भरी गलियों में एक साइकिल रोज़ गुजरती है — उस पर बैठी हैं 81 साल की सिस्टर सुधा वर्गीज़, जो पिछले पचास वर्षों से मुसहर समुदाय की ज़िंदगी में उम्मीद का दीप जला रही हैं।
केरल के कोट्टायम में 1944 में जन्मीं सिस्टर सुधा, किशोरावस्था में ही बिहार चली आईं। यहाँ की गरीबी, भेदभाव और सामाजिक असमानता ने उनके भीतर सेवा की आग और गहरी कर दी। वे कहती हैं, “मैं इसलिए नहीं आई कि मुझे समय था, मैं इसलिए आई क्योंकि मुझे आना चाहिए था।”
अनाज के गोदाम से शुरू हुई शिक्षा की क्रांति
बिहार के मुसहर बस्तियों में रहते हुए सिस्टर सुधा ने एक अनाज के गोदाम में लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया — जहाँ ब्लैकबोर्ड नहीं था, पर उम्मीद थी।
उन्होंने लड़कियों को सिर्फ साक्षरता नहीं, आत्मविश्वास, सिलाई और आत्मनिर्भरता सिखाई। धीरे-धीरे यह पहल एक आंदोलन बन गई।
1987 में उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और न्याय के लिए संगठन की स्थापना की। बाद में कानून की पढ़ाई की ताकि हिंसा की पीड़ित महिलाओं को कानूनी मदद दे सकें। वे उन महिलाओं के लिए आवाज़ बनीं जिन्हें समाज ने अनसुना कर दिया था।
पटना के पास बनी नई राह — शिक्षा की शक्ति
2005 में सिस्टर सुधा ने पटना के पास एक आवासीय विद्यालय खोला, जो कभी जर्जर भवन था, अब शिक्षा का केंद्र बन चुका है।
आज वहीं की मुसहर लड़कियाँ डॉक्टर, शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता बन रही हैं। यह बदलाव सिर्फ ईंट और दीवारों का नहीं, बल्कि मानसिक आज़ादी और आत्मसम्मान का प्रतीक है।

81 की उम्र में भी साइकिल पर सेवा का सफर
आज जब कई लोग सेवानिवृत्ति के बाद विश्राम चुनते हैं, सिस्टर सुधा वर्गीज़ अब भी साइकिल से गाँव-गाँव जाती हैं — महिलाओं से मिलती हैं, बच्चों को पढ़ाती हैं और उनकी समस्याएँ सुनती हैं।
वे कहती हैं, “सेवा कोई पद नहीं है, यह सुबह से सुबह तक चलने वाली यात्रा है।”
उनकी निस्वार्थ सेवा यह याद दिलाती है कि परिवर्तन वहीं से शुरू होता है जहाँ संवेदना कर्म में बदलती है।
