रायपुर, 26 सितंबर 2025: छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित एक भव्य साहित्यिक जलसे में मशहूर लेखक विनोद कुमार शुक्ल को उनकी किताबों की बिक्री के एवज में 30 लाख रुपये की रॉयल्टी मिलने की खबर ने हिंदी साहित्य जगत में नई बहस छेड़ दी है। जहां साहित्यकारों और पाठकों के बीच इसे एक ऐतिहासिक उपलब्धि माना जा रहा है, वहीं कुछ हलकों में आयोजन को लेकर वैचारिक और राजनीतिक सवाल उठाए जा रहे हैं।
लेखक को मिला सम्मान, हिंदी साहित्य के लिए सकारात्मक संकेत
विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य की उस पीढ़ी का नाम हैं जिनका लेखन सादगी, गहराई और संवेदनशीलता के लिए जाना जाता है। उनके लिए मिली यह भारी-भरकम रॉयल्टी हिंदी लेखकों को लंबे समय बाद वाजिब मेहनताना मिलने का प्रतीक मानी जा रही है। कई साहित्यकारों और पाठकों ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि अब हिंदी लेखकों को भी उनकी कृतियों का उचित मूल्य मिलना शुरू हो गया है।
लेकिन विवाद की परतें भी खुलीं…
सोशल मीडिया और कुछ आलोचकों का आरोप है कि आयोजन का असली मुद्दा — यानी पूर्व मुख्यमंत्री की मौजूदगी और साहित्य के साथ राजनीति का मेल-जोल — रॉयल्टी की खबर के शोर में दबा दिया गया। आलोचकों ने सवाल उठाए कि एक ऐसे पूर्व मुख्यमंत्री, जिनके शासनकाल में सलवा जुडूम जैसी विवादित कार्रवाई और झीरम घाटी जैसी भयावह घटना हुई थी, वे आखिर साहित्यिक मंच पर क्या संदेश देने आए थे?
‘चंपादक’ बहस और बुजुर्ग लेखकों का सीधापन
कई टिप्पणीकारों ने व्यंग्यात्मक लहजे में यह सवाल खड़ा किया कि क्यों कुछ लोग बार-बार बुजुर्ग लेखकों की सादगी और सहजता का फायदा उठाते हैं। आयोजन में राजनेताओं, कारोबारी घरानों और साहित्यकारों की नजदीकी पर भी चर्चा छिड़ी। आलोचकों ने इसे “साहित्य के मंच पर राजनीति की घुसपैठ” करार दिया।
आयोजन पर पारदर्शिता के सवाल
विवाद इस बात पर भी है कि आयोजन में कुल खर्च कितना हुआ, लेखकों और वक्ताओं को कितना मानदेय मिला, और सरकार से कितनी सहायता राशि आई। सवाल यह भी है कि किताबों की सरकारी खरीदी कितनी हुई। आलोचकों का कहना है कि अगर आयोजन पारदर्शी है तो वित्तीय विवरण सामने लाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
फासीवाद और संस्कृति की बहस
कई लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का मानना है कि इस तरह के भव्य आयोजन दरअसल “फासीवादी ताकतों की रणनीति” का हिस्सा होते हैं, जहां साहित्य और संस्कृति की आड़ में राजनीतिक और सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश होती है। उनका कहना है कि असल लड़ाई अब भी उन लेखकों और कलाकारों की है जो शोषित और वंचित तबकों के पक्ष में लिखते हैं।
निष्कर्ष
रायपुर का यह आयोजन हिंदी साहित्य को आर्थिक रूप से मजबूत करने का प्रतीक तो बना, लेकिन साथ ही यह साहित्य, राजनीति और सत्ता के रिश्तों पर गंभीर सवाल भी छोड़ गया। नई पीढ़ी के साहित्यकारों और पाठकों के लिए यह बहस अब और जरूरी हो गई है कि साहित्य का रास्ता किस ओर जाएगा — जनता के पक्ष में या सत्ता के साए में।
