नई दिल्ली, 16 जून 2025 — सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 को लागू करने के लिए तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को बाध्य करने संबंधी याचिका को खारिज कर दिया गया है। यह निर्णय संघीय ढांचे और राज्यों की स्वायत्तता की संवैधानिक भावना को एक नई ताकत देने वाला माना जा रहा है।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह राज्यों को एनईपी लागू करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता, जब तक कि इसके लागू न करने से नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता। यह फैसला केंद्र और राज्यों के बीच शिक्षा नीति को लेकर जारी टकराव में एक महत्वपूर्ण मोड़ है।

याचिका एक भाजपा नेता द्वारा दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि एनईपी को लागू न करना स्कूली छात्रों के शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन है। लेकिन कोर्ट ने इसे खारिज करते हुए कहा कि शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची में आती है, और राज्यों को इसमें नीति निर्धारण का पूरा अधिकार है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह सिर्फ एक कानूनी फैसला नहीं, बल्कि संघवाद की पुनर्पुष्टि है। कोर्ट ने इस निर्णय में यह भी संकेत दिया कि राज्यों को केंद्र की नीतियों को आँख मूंदकर अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
इस पूरे विवाद का केंद्र है केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को शिक्षा फंडिंग एनईपी अनुपालन से जोड़कर वितरित करना, जिसे “वित्तीय ब्लैकमेल” के रूप में देखा जा रहा है। तमिलनाडु सरकार ने अनुच्छेद-131 के तहत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी कि केंद्र ने 2,291 करोड़ रुपये की शिक्षा निधि रोक दी है।
केरल मॉडल भी इस बहस में सामने आया है, जहाँ राज्य सरकार ने लोकतांत्रिक और सार्वजनिक भागीदारी आधारित शिक्षा मॉडल को अपनाते हुए निजीकरण और केंद्रीकरण के एजेंडे का विरोध किया है। इस मॉडल में सार्वजनिक वित्त पोषण, लैंगिक समानता, उच्च नामांकन दर, और छात्रों की निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी जैसे तत्व शामिल हैं।
इस बीच, छात्र संगठन एसएफआई ने एनईपी के खिलाफ देशव्यापी विरोध और कैंपस जनमत संग्रह के माध्यम से प्रतिरोध आंदोलन को नई दिशा दी है।
यह स्पष्ट है कि एनईपी के इर्द-गिर्द संघर्ष सिर्फ एक शैक्षणिक मसला नहीं है, बल्कि यह एक राजनीतिक और वैचारिक संघर्ष बन गया है – एक ओर केंद्रीकरण, सांप्रदायिकता और बाज़ारीकरण की कोशिशें हैं, तो दूसरी ओर लोकतांत्रिक, क्षेत्रीय और जन-भागीदारी आधारित वैकल्पिक मॉडल।
